“राष्ट्रवाद का रंगमंच”

रात की चादर तलेस्क्रीन पर उठता है शोर,

लाहौर की दीवारें काँपती हैंऐसा चलता है ज़ोर।

धमाकों की छवियाँसीजीआई की चमक,

हर एंकर बना सेनापतिहर बहस में क्रुद्ध विमर्श।

 

वीरता बिकती है यहाँपैकेज बना दी गई है मौत,

शहीदों के आँसू सूखते हैंपर टीआरपी पाती है सौगात।

अधजली चिट्ठियाँअधूरी पेंशन की फाइलें,

झाँकती हैं पर्दे की ओट से“कब आएगा मेरा हक?”

 

बालाकोट के साये में बनती हैं फ़िल्में,

जहाँ राष्ट्रवाद का संवाद हैपर खामोश हैं आँखें।

हाउ इज़ द जोश’ गूंजता है सिनेमा हॉल में,

पर शहीद की माँ के आँगन में पसरा है सन्नाटा

 

प्रश्न पूछने पर लगते हैं तमगेगद्दारदेशद्रोही,

और उत्तर नहींमिलते हैं मीम्सट्रोलमौन की तोहीनें।

सोशल मीडिया पर झंडा लगाचल पड़ते हैं योद्धा,

मगर युद्धभूमि में अब भी अकेला खड़ा है सच्चा सिपाही।

 

चुनावी मौसम में उगते हैं ‘स्ट्राइक’ के फूल,

वोटों की फ़सल काटने को उछाले जाते हैं जुमले अनगिनत।

जो चुप रहेवह राष्ट्रभक्तजो बोलेवह शक़ के घेरे में,

सत्ता और मीडिया की यह साठगांठ लिखती है झूठ की गाथाएँ।

 

कश्मीर की घाटियों में जो बहता है खून,

उसकी कोई स्क्रिप्ट नहींकोई रीटेक नहीं,

वह मृत्यु है निर्वस्त्रनग्नअनकही,

जिसे ढकते हैं राष्ट्रवाद के पर्दे।

 

तो पूछो —

क्या देशभक्ति अब एक ‘सीन’ हैया संवेदना की पुकार?

क्या हम तालियाँ ही बजाएँगेया पकड़ेंगे रोते हाथों की दरकार?

 

वक़्त है अब,

राष्ट्रवाद को थियेटर से उतार 

ज़मीन की धूल में ढूँढने का।

  • प्रियंका सौरभ

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